अपनी सोच का दायरा अपने तक ही सीमित रखना
दुनिया में कई प्रकार के लोग होते हैं। विभिन सोच, प्रवृत्ति, स्वभाव और व्यक्तित्व के लोग। इनमें से एक किस्म होती है ” अपने मुंह मियां मिट्ठू”। ये भी एक तरह का मानसिक विकार होता है जिसमें व्यक्ति का दिमाग पूरी तरह संकुचित हो जाता है।
कई बार हमने देखा है कि एक व्यक्ति कई अच्छे गुणों का स्वामी होता है। उसमें हर काम की जानकारी होती है, देखने में आकर्षक होता है, अच्छी शिक्षा का जानकार होता है लेकिन एक विशेष गुण से इतना प्रभावित होता है कि बाकी सारे गुण फीके पड़ जाते हैं।
प्रशंशा हमेशा दूसरों के मुंह से ही अच्छी लगती है। वही प्रशंशा जब हम स्वयं अपने मुंह से करते हैं तब वो मज़ाक का विषय बन जाती है। इंसान में धैर्य, समझदारी और संतुलित व्यवहार का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी होता है नहीं तो इसके गर्त में बड़े से बड़ा ज्ञान भी गोते खाने लगता है।
आखिर दिखावा करना ही क्यों है? हम शिक्षित हैं तो वो हमारे व्यवहार में दिखेगा। हम किसी कार में परिपक्व हैं तो वो हमारे काम में दिखेगा। वैसे ही यदि हम अपनी बड़ाई खुद ही हांकते रहे तो ये हमारी ज़बान में दिखेगा और जिसे सुननाअपनी बड़ाई खुद ही करते रहने वाला व्यक्ति वास्तव में एक ऐसा व्यक्ति होता है जो दिन – रात इसी चिंता में घुलता रहता है कि लोग उसको सबसे अच्छा नही बल्कि सर्वश्रेष्ठ मानें और इसके लिए वो अपनी शब्दों की मर्यादा भी भूल जाता है। कोई भी पसंद नहीं करेगा।
वो किसी भी बात में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने में इस कदर आंख मूंदकर भागता है कि उसको पता ही नहीं चलता कि वो उस दौड़ में अकेला ही दौड़ रहा है। अपने मन से इस विकार को निकालकर, एक बार यदि सिर्फ सीखने और जानने पर ध्यान दिया जाए तो वही व्यक्ति अपने गुणों को और बेहतर तरीके से निखार भी पाएगा और जिस प्रशंसा को वो स्वयं में जीता है वो दूसरों के मुंह से सुनकर अपने गुणों की असली पहचान भी पा सकेगा।
हम पूरी तरह से परफेक्ट हैं ये हम नहीं, हमारा व्यक्तित्व, हमारा काम और और हमारा आचरण खुद बोलता है।